tag:blogger.com,1999:blog-44599145085843350422024-02-20T04:00:32.718-08:00Pradeep Tewari blogPradeep Tewarihttp://www.blogger.com/profile/09126722487225117039noreply@blogger.comBlogger10125tag:blogger.com,1999:blog-4459914508584335042.post-47899834507702857272011-07-29T17:04:00.000-07:002011-07-29T18:28:10.557-07:00श्री कलमाड़ी पुराणअरे यह क्या हो रहा है कलमाड़ी साहब की तबियत बिगड़ रही है? कभी कहते हैं की यादाशत की बीमारी से पीढ़ित <span style="font-size:+0;">हें, </span>कभी कहते हें की मुझे अपने संसाद के कर्तव्य याद आ रहे हें । कलमाड़ी जी बेक़रार हें तिहार से बहार आने को मगर हवा कुछ उनके खिलाफ बह रही है। श्री कलमाड़ी प्रशन्षा के पात्र हें इंतना सब कुछ होने के बाद भी चहेरे पर शर्म की हलकी सी लकीर भी नहीं हें। आखों मैं भी गजब की बेशर्मी दिखाई पढती है , और चलने का अंदाज़ भी ऐसा गली के दादा जैसा , की जिसने जो भी कुछ करना है कर लो। मुझे लगता हें की हमारे प्राथमिक स्चूलों मैं श्री कलमाड़ी पर एक पाठ तो होना ही चहिये, और महामहिम श्री राजा पर तो पूरी पुस्तक ।<br />कवि प्रदीप जिस प्रकार शास्त्रीजी और गाँधी जी पर गीत रचते थे , ठीक उसी प्रकार श्री कलमाड़ी और महामहिम राजा पर गीत रचे जाने चहिये । दे दिए हमे खेल गटक के करोणों का माल , ऐ कोम्मोंवेअल्थ के संत तूने कर दिया कामाल। और महामहिम राजा की महिमा तो अपरमपार हें .<br /><br /><br /><br /><br /><span style="font-size:+0;"></span><br /><span style="font-size:+0;"></span><br /><br /><br /><br /><br /><span style="font-size:+0;"></span>Pradeep Tewarihttp://www.blogger.com/profile/09126722487225117039noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4459914508584335042.post-85512878246327094432009-10-25T20:03:00.000-07:002009-10-25T20:33:42.609-07:00बिग बी इन बिग bआजकल बिग बॉस नमक कार्य्रक्रम टीवी खूब ही प्रसिद है मुझे इस कार्यक्रम मैं या इसके कलाकारों मैं कोई उत्सुकता नहीं है , मुझे सिर्फ़ इसके सूत्रधार श्री अमिताभ बच्चन को वार्तालाप करते है देख कर असीम अन्नंद की अनुभूति होती है , अमिताभ की हिन्दी पर पकड़ और उनकी गहरी आवाज सुनकर मन गदगद हो जाता है , और मैं मंत्रमुग्ध हो जाता होऊं। अमिताभ के व्यक्तित्व मैं एक अनूठा ही आकर्षण है , और हिन्दी भाषा पर उनका सवाभाविक ज्ञान है , शाहरुख़ बेशक अच्छे कलाकार हैं पर मुझे नहीं लगता वोह अमिताभ के आस पास भी पहुच पाते हैं ना तो अभिनय मैं , ना तो कद मैं और हिन्दी ज्ञान मैं तो कोई मुकाबला ही नहीं है । अमिताभ वास्तव मैं आद्रित्य और अनुपम है .Pradeep Tewarihttp://www.blogger.com/profile/09126722487225117039noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4459914508584335042.post-69008597325221713602009-10-16T20:10:00.000-07:002009-10-16T20:34:47.182-07:00हैप्पी दिवालीआज दिवाली है ,रह रह कर भारतवर्ष की याद आ रही है , कैसी कैसी मिठाई खाने को मिलती थी ,एक मिठाई मुझे आज सुबह से याद आ रही है , वोह है बाल मिठाई , बाल मिठाई कुमाओं की पारम्परिक मिठाई है , डेल्ही मेशायद ही मिले इसे लेने के लिए आप को नानिताल या अल्मोरा जाना होगा। बढ़ी ही सावादिष्ट मिठाई है , बस अन्दर जाते ही मुहँ मैं घुल जाए । यहाँ दस पन्दरा हज़ार मील दूर अमेरिका मैं मिठाई मिलती तो है लकिन वोह बात कहाँ । आज या कल ओ़बामाजी ने भी दिवाली मनाई दीप जलया संदेश दिया .बीस से अधिक वर्ष हो गए पर मन भारत मैं ही रमता है , रफी साहब का गाना याद आ रहा है , कभी मगराब से मसरफ मिला है न मिलेगा , जहाँ का फूल है जो वहीँ पे वोह खिलेगा , यहाँ मैं अजनबी हूँ , यहाँ मैं अजनबी हूँ .Pradeep Tewarihttp://www.blogger.com/profile/09126722487225117039noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-4459914508584335042.post-30909198878577906662009-10-05T20:46:00.000-07:002009-10-05T21:30:22.032-07:00phissadi<span style="color:#3333ff;">ब्राजील मैं आजकल जश्न का माहुल है, और चाइना तो अपना वर्चच्सव दिखा ही चुका है , अब बच गया है भारत , कोमोंवेअल्थ खेल करवाना ही एक जी का जंजाल बना हुआ है । मुझे लगता है भारत शुरआत से ही खेलों के प्रति एक उदासीन देश है , हमरे यहाँ खेल की महत्ता कभी समझी ही नहीं गई । बात ७० के दशक की है जब मैं छोटा था मेरी माताजी हमेशा कहती थी अरे खेल मैं क्या रखा है , पढ़ाई करो वरना फिसड्डी रहोगे । खेलों मैं शुरुआत से राजनीती और भास्ताचार का दबदबा रहा , कोई राजनेता भारतीय हॉकी संघ पर कब्जा कर के बैठ गया ,तो कोई फुटबॉल और कुश्ती को अपनी जागीर समझने लगा .अगर यह खेल खेले भी गए तो केवल रेलवे और एयर इंडिया मैं नौकरी पाने के लिए .इन सभी खेलों को खेलने वाले खिलाड़ियों की दुर्धाशा जगात्जहिर है.हम सभी को व्यक्तिगत आधार पे भी खेलों के प्रति अपने दृष्टिकोण को को बदलने की आवशयकता है .</span>Pradeep Tewarihttp://www.blogger.com/profile/09126722487225117039noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4459914508584335042.post-30188674456778229872009-10-01T01:27:00.000-07:002009-10-01T08:36:00.234-07:00मराठी मानुष<em>आज कल आए दिन समाचरोंमैं राज ताखरे , बाला साहेब , कभी उनके आपसी मन मुटाव की खबरें आती रहती है यह सभी <span style="font-size:0;">महान </span>नेता मराठी मानुष का मुद्दा बड़ी गरमजोशी से <span style="font-size:0;">उअठाते </span>हैं ,ऐसे ही एक मराठी मानुष का किस्सा मुझे भी याद आता है । बात आज से करीब २८ वर्ष पहले की है , उन दिनों हम देल्ली की सरकारी कालोनी सरोजिनी नगर मैं रहते थे , मैं और मेरी माँ , बहिन की शादी हो चुकी थी मैं रहा होऊंगा , कोई १६ या १७ वर्ष का , स्कूल का लगभग आखिरी साल था , <span style="font-size:0;">हामरे </span>माकानो के बीच एक बुढासा , कमजोर , खांसता हुआ आदमी घूमता रहता था , हुलिए से चोकीदार लगता था , उसके पास एक बड़ा सा डंडा भी रहता था ,कभी यहाँ बैठ जाता , तो कभी वहां बैठ जाता था , मगर रहता हामरे एरिया मैं ही ,हामरे मकानों मैं से ही उसे कोई भोजन दे देता , कोई रघु कहता , कोई रघुनाथ , बच्चे खेलते उस से बोलते तो हल्का सा मुस्कुराता और मराठी भाषा मैं कुछ बुदबुदाता , ऐसे व्यक्ति <span style="font-size:0;">को </span>पागल , बेघर , या किसी भी इस पारकर की संज्ञादी जा सकती है .कभी रघुनाथ सवयम से ही मराठी भाषा मैं बातें करता कभी वोह लंबे सा नोबुक कुछ न कुछ मराठी भाषा मैं लिखता रहता , दिन भर इधर , उधर विचरने के बाद रात को वोह हामारे सिदिहियौं मैं सो जाता , अगर सर्दी हो तो पुराने कम्बल ढांप लेता । मुझे सुबह पाठशाला जाते होए यूं प्रतीत होता मनो kapodoanकी कोई घटरी पड़ी हो । सुबह , सुबह मैं उसे चाय नियमपूर्वक देता था जो मेरी माँ हमेशा बनती थी , चाय बनते समय मेरी माँ के चेहरे पर सम्पूर्ण संतुस्ठी का भावः होता था , ऐसी ही एक सर्दी की सुबह जब मैंने मरठी मानुष रघुनाथ को चाय देने की कोशिश की तो वोह हिला न दुला , मुझे आभास हो गया की शायद , उसकी जीवन यात्रा समाप्त हो गई है .हामरे पड़ोस मैं रहने वाले सज्जन पुरूष सुदेश जी ने रघुनाथ का अक्न्तिम संसास्कर संपून विधि विधान के साथ करवाया । मुझे और सभी वहां रहने वाले ऊतर वासिओं को लगा ,जैसे कोई अपना चला गया । पता नहीं कब तक राज ठाकरे मराठी मानुष के नाम पर अपना ऊलू सीधा करते रहेंगे । हिन्दी के कवि अशोक चरक्धर की कविता याद आ रही है जसका भावः कुछ इस तरह से है की हम लोग कब तक आपस मैं जाती के आधार पर लड़ते मरते रहेंगे , क्या तुम्हरा खून लाल और मेरा नीला है .</em>Pradeep Tewarihttp://www.blogger.com/profile/09126722487225117039noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4459914508584335042.post-74993185777178950302009-09-28T19:58:00.000-07:002009-09-30T20:15:31.190-07:00विजयदशमी<strong><em>आज विजयदशमी है ,मुझे याद है जब छोटे थे ,तो इन दिनों का एक अलग ही आनंद था , डेल्ही की हलकी सी सर्दी रात एक दो बजे तक रामलीला होती थी श्री राम का दर्शन , लक्ष्मण का क्रोधित हो <span style="font-size:+0;">जाना, </span>माता सीता का विलाप, हनुमान का वायु मैं उअधना , अंगद का पाऊँ जमा देने , इन सब एक अलग ही रस था वह आनंद गद्देदार सोफे मैं बैठ कर ब्लू राय डीवीडी चला कर भी नहीं मिलता । मेरे एक मामा है उनका नाम जगदीश है मगर प्यार से हमलोग उन्हें <span style="font-size:+0;"><span style="font-size:+0;">जगमा </span>k</span>आहते हैं , जगमा बांस को काटकर उसमे सुटली बाँध कर जो तीरकमान बनते थे ,विजयदशमी के दिन भोजन भी विशेष ही बनता था माँ सुबह से ही भोजन की तयारी लग जाती थी , दही बड़े , रायता , माँ की दाल .बाजार मैं दिवाली के आगमन की सुग्भुगाहत सुरु हो जाती थी , दुकाने आतिशबाजी से सजने लगती थी सारे बाजार के ऊपर रंग बिरंगी रोशनी और तरह तरह की साजावत । चीनी के खिलोनों को देख कर लार टपकने लगती थी , फिर मिठाई , यह सब उस ज़माने की बात है जब जीवन सरल था , टीवी इंतना विशाल नहीं था , बाजार थे, माल ने तब पैर पसारने सुरु नहीं किए थे , मारुती का आगमन बस हो ही रहा था , मुद्रिका सेवा रिंग रोड पर अपनी मंथर गति से चलती रहती थी , जीवन मंथर था पर मधुर था .</em></strong>Pradeep Tewarihttp://www.blogger.com/profile/09126722487225117039noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4459914508584335042.post-29222368466619245962009-09-26T20:22:00.000-07:002009-09-26T21:03:23.513-07:00जय हिंदआज कल नौकरी नहीं है तो क्रेडिट मैं भी गड़बढ़ हो रही है बिलों के भुगतान समय अनुसार कर नही पा रहा हूं। आज सुबह तीन फ़ोन आयये तीनों भारत से थे और तीनों भुगतान के सिलसिले मैं , फ़ोन करने वाले तीन भारतीये युवक थे ,तीनों ने अंगेरजी मैं बात की ,परन्तो लहजा भारतीय बात चीत का ढंग भारतीय ,फिर भारतीय लहजे को पकड़ना कोई कठिन नहीं.अब मैं असली मुद्दे यानि उनके नाम पर आता हूं , तीनो ने अपना नाम वेदेशी बतया , एक ने बतया अलेक्स ,एक ने लुके,और एक ने टोनी , अब प्रशन यह है तीनों ने कॉल करने से पहले मेरा नाम पड़ा होगा , तीनो ने मुझे नाम से सम्भोधित किया और सम्पूर्ण वार्तालाप अंगेरजी मैं हुआ । अगर आप भारत से हैं और एक भारतीय से बात करने वाले हैं तो मात्रभाषा के प्रयोग मैं कैसी शर्म?कैसी हित्किचाहत ?अगला प्रशन तीन ने अंग्रेज़ी नामों का प्रयोग किया मुझे शत प्रतिशत विश्वास की उनके नाम कुछ और थे । मुझे अमेरिका रहते होए काफी समय बीत गया पर मैंने अपने नाम को बदलने की कभी कोशिश नहीं की । गोरों को समय लगता है , मगर फिर आदत पड़ जाती है । कितने अमेरिका वासिओं ने अपना नाम हम भारतियों की सुविधा के लिए बदला है? सुना है कॉल सेंटरों मैं ऐसा सिखया जाता है , मुझे तो नई किस्म की गुलामी की बू आ रही है । आप लोग कॉल सेंटर मैं काम करने वाले युवा हैं इंकार कीजिये , विरोध कीजिये कहिये मैं अपने नाम का ही प्रयोग करोगा रोसा पार्क की तरह, भगत सिंह की तरह , अरे भगत सिंह का जनम दिन किसी को याद हैं ?कैसे याद होगा कॉल सेण्टर मैं तो शायद ४ जुलाई की छुट्टी होती है। जय hindPradeep Tewarihttp://www.blogger.com/profile/09126722487225117039noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4459914508584335042.post-73915385154554342562009-09-24T21:14:00.000-07:002009-09-24T21:49:49.144-07:00जन्मदिन मुबारककल बात हुई १४ की आज बात १५ की , १५ को दूरदर्शन ने ५० वर्ष पुरे किए .अगर आप ९० के दशक के बाद के हैं तो यह सारी बात आपको बहुत ही विचित्र लग सकती है .जब मैं भारत से चला था तो सिर्फ़ और सिर्फ़ दूरदर्शन ही था मुझे इस परम शातिशाली देश अमेरिका मैं लगभग २० वर्ष से अधिक हो गए । बुधवार की रात का चिर्त्रहार का मजा ही कुछ और था । और फिर रविवार की फ़िल्म , शाम ६ बजे से दिल की धड़कने बाद जाती थी , बाजार जैसे खाली हो जाते थे । ठीक सवा आठ बजे हिन्दी समाचार । उस ज़माने के कुछ चे़रहे थे , परतिमा पुरी , बालों मैं फूल लगाने वाली सलमा सुलतान , तेजी से अन्गेरेजी पढने वाले रामू दामोदरन , फूल खिले गुलशन गुलशन वाली तबसुम को कौन भूल सकता है .अरे भाई क्रषि दर्शन भी तो आता था जिसे आते ही सब भाग जाते थे। अब बात निकली तो विजापन भी याद आ रहे हैं , दूध सी सफेदी निरमा से आए , रंगीन कपड़ा भी खिल खिल जाए । सारेके सारे टीवी शवेत शाम हुआ करते थे , रंगीन तो भूल ही जाईए । जन्मदिन मुबारक , दूरदर्शन !Pradeep Tewarihttp://www.blogger.com/profile/09126722487225117039noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4459914508584335042.post-48836167653448572372009-09-23T20:42:00.000-07:002009-09-23T21:30:55.422-07:00हिन्दी दिवसअभी शायाद दस दिन भी नहीं होए की १४ सितम्बर गुजरा । १४ सितम्बर क्या मतलब ?क्या आप पागल हो गए उस दिन क्या होता है? नौ गय्रह की बात करो ,अमेरिका की बात करो अंग्रेजी की बात करो क्या यह १४ सितम्बर इस दिन हिन्दी दिवस था वह भाषा जो हमारी अपनी भाषा है जिस भाषा हम सारे के सारे अधिकांश भारतीय सोचते हैं।उसी हिन्दी के लिए दिन .बचपन से <span style="font-size:0;">हिन्दी </span>लगाव हैं छोटा था तो हिन्दी मैं लिखता भी था .बाद मैं पता लगा अरे हिन्दी की क्या बिसात महारानी तो अंग्रेजी है । डेल्ही के पोश इलाके वसंत विहार मैं मैडम विदेशी सोफे मैं बैठ कर फलों के जूस का सेवन रही हैं और पीछे से एसी बयार फ़ेंक रहा हैं और वन्ही कंही रसोई मैं नौकर्रानी चूले के सामने बैठे गर्मी मैं झुलस रही है । बस येही मैडम अंग्रेजी है और बेचरी नौकरानी हिदी है.अपनी भाषा के साथ ऐसा सौतेला बर्ताव ?किसी भी देश के विकास मैं उसकी अपनी भाषा महत्पुरण स्थान रखती है, हामरे पड़ोस मैं ही उदहारण हैं चाइना और जापान जैसे देश। मगर शायद हम लोग अब बहुत दूर निकल आए हैं हिन्दी कंही पीछे रह गई हैं पुरानी जर्जर बुढिया की तरह और अंग्रजी कहने ही क्या भाग रही है पुरी रफ्तार से पीटी उषा की तरह । हिन्दी दिवस की बहुत शुभकामना .Pradeep Tewarihttp://www.blogger.com/profile/09126722487225117039noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-4459914508584335042.post-6415864341776438862009-09-22T21:57:00.000-07:002009-09-22T22:25:04.097-07:00सल्लू भाई की नई filmयार आदमी की जॉब चली जाए और धक्के खाने पड़े तो बड़ी हालत ख़राब होती है । कोई जमाना था जब अमरीका मैं इंतनी जॉब होती थी की गिनती करो तो ख़तम ही न हो अब यह हॉल है की उर्दू का एक शेर याद आ रहा है आज इनती भी मयस्सर नही मयखाने मैं जिनती हम छोड़ दिया करते थे पैमाने मैं। तो जनाब धक्के खाते होए चार महीने बीत चुके मैंने सोचा सब चिंता छोड़ कर कुछ आनंद प्राप्ति की जाए और एक मनोरंजक चलचित्र देखा जाए तो अपने सुपुत्र के साथ अपनराम पहुँच<br />गए सिनेमा मैं मेरा सुपुत्र सिर्फ़ नाम का ही इंडियन है हिन्दी भाषा उअसके लिए ऐसे है जैसे कला अक्षर भैसें बराबर पर उसने पुरे के पुरे चलचित्र का भरपूर आनंद उठाया अरे फ़िल्म का नाम तो मैं बतना ही भूल गया वांटेड अपने सल्लू भाई की फ़िल्म अच्छी बन बन पड़ी है आज कल इंडियन फिल्मकारों को कहनी कहने का नया अंदाज़ आ गया है पुरानी शराब को नए बोतल मैं नया लेबल के साथ जय हो प्रुभु फ़िल्म वही जो दर्शक मन भयेPradeep Tewarihttp://www.blogger.com/profile/09126722487225117039noreply@blogger.com0